वह लोकतंत्र है कहाँ गया
करता जो अधिकारों की रक्षा
किसी दफ्तर बैठा मांग रहा क्या
अपने अस्तित्व की भिक्षा
या फिर है किसी खादीधारी
की दराज मैं पड़ा हुआ
अपने सौतेले बंधू
नोटों के बण्डल ताक रहा
कहीं मरणासन्न किसानों के संग
अपना दम भी तोड़ रहा
इस युगों-युगों पुरानी
अपनी कर्मभूमि को छोड़ रहा
कभी जातिवाद कभी धर्मभेद
पर खड़ा रहा मूकदर्शक बना
धिक्कार तुझे हे जननी
जिसने लोकतंत्र सा बाल जना
– अनुराग पंत