निराश

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– रजनीश यादव

कैसे कहूँ मुबारक
सर झुका है मेरा,
इस शाम की डगर पे
आगे कठिन अँधेरा |

वो दोपहर का सूरज ढलने को आ गया है
उस चाँद की चमक को बादल चुरा गया है,
कैसे करूँ मैं अपनी मंजिल फतह ओ यारों
मेरे रास्तों में कोई कांटे बिछा गया है |

अब रस्ते के जुगनूँ नज़रें चुरा रहें हैं
कल के हमसफ़र अब सपनों में आ रहे हैं,
कैसे जियूं मैं अपनी सपनों की ये हकीक़त
अपने ही जिन्दगी को मुश्किल बना रहे हैं |

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