सिकुड़ता गणतंत्र

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– अमित कुमार

आज जब इस 26 जनवरी को राजपथ पर देश के राष्ट्रपति तीनो सेनाओं की सलामी ले रहे होंगे तब यह देश इस 63 साल पुराने गणतंत्र को एक बार फिर से सँभालने की कोशिश कर रहा होगा। जब देश  के महामहिम एक विदेशी अतिथि के सामने अपने देश के वैभव-सम्पन्नता का दिखावा कर रहे होंगे तब विदर्भ का एक किसान आत्म-हत्या करने के लिए अपने गले में रस्सी डाल रहा होगा। जब हमारे देश की अक्षौहिणी सेना अपने ताकत का प्रदर्शन कर सीमा के पार बैठे अपने दुश्मनों के मन में डर पैदा करने की कोशिश कर रही होगी तब इसी माँ भारती का एक गद्दार बेटा अपने ही भाइयों के लिए आग उगल रहा होगा। जब सारा राष्ट्र ख़ुशी के माहौल में एक साथ झूम रहा होगा तब इस देश को बांटने वाले भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर एक ही माँ के बेटो के मन में नफरत घोल रहे होंगे। जब देश के गणमान्य नेता हजारो पुलिसों के सुरक्षा घेरे में होंगे तब हमारी ही कोई बहन इसी धरती पर किसी मानव-शरीर धारी राक्षस के कुत्सित इरादों का शिकार होकर अपने इज्जत की रक्षा के लिए आवाज दे रही होगी। पर इस जश्न के माहौल में देश के सत्ताधीशो को न तो उस किसान का दर्द समझ में आएगा, ना ही उस गद्दार की परवाह होगी और ना ही इस लड़की की चीख सुनाई देगी।
हजारो साल पहले एक यूनानी के इस हिंदुस्तान पर आक्रमण करने पर ‘उत्थिष्ट भारत’ का नारा लगाने वाले चणीक-पुत्र चाणक्य ने जिस अखंड भारत का सपना देखा था उस सपने को इसी देश के जयचंदों ने हमेशा मटियामेट किया। भारत के जिन सीमाओं ने विश्व-विजेता सिकंदर की अपराजेय सेना को वापस लौटने के लिए मजबूर किया वहीँ भारत की सीमाएं कई बार विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा लांघी गई। गजनी के महमूद, मंगोलियन तैमुर और ईरानी लुटेरे नादिरशाह से लेकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तक, सबने इस देश को अपनी अकांक्षाओं का शिकार बनाया। सैकड़ो सालो तक विदेशी ताकतों की पराधीनता में यह देश अन्दर ही अन्दर इतना खोखला हो गया था की इसके पास इन विदेशियों के खिलाफ आवाज उठाने तक की शक्ति नहीं बची थी। जब इस धरती के युवाओं के कंधे विदेशी दासता के सामने झुकने लगे थे तब माँ भारती ने गाँधी, भगत, आजाद, बोस और पटेल जैसे बेटो को जन्म दिया। झुके हुए सर उठ गए, बुढ़ापे की हड्डियों में जवानी का दम आ गया और देश को हमने उन विदेशियों से वापस छीन लिया। भारतीय गणराज्य दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बना और देश को अपना सविधान मिला। जब लालकिले की प्राचीर पर तिरंगा लहराया तो देशवासियों ने आजाद हिंदुस्तान का एक ऐसा ख्वाब बूना जो अपने गौरवशाली अतीत की पुनरावृत्ति कर सके। आंबेडकर और राजेंद्र प्रसाद के लिखे कानून को देश का सविंधान मान कर देश की सत्ता नेहरु के हाथो में सौप दी गयी। और तब इस देश का एक ऐसा सफ़र शुरू हुआ जिसने आज 63 साल बाद हमें इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ हमें एक ओर तो भविष्य के बड़े बड़े सपने दिखाए जा रहे हैं तो वहीँ दूसरी ओर यथार्थ का गन्दा रूप।
आज जहाँ ‘मिशन 2020’ का सपना बूना जा रहा हैं वहीँ सच्चाई के धरातल पड़ यह देश कई खंडो में विभाजित नजर आ रहा है। जहाँ देश की सेना नित नए हथियारों से लैश होकर विदेशी ताकतों का सामना करने के लिए तैयार हो रही हैं वहीँ देश के अन्दर देश की बेटिया खुद को सबसे ज्यादा असुरक्षित महसूस कर रही हैं। बचपन में इस देश के जिस ‘अनेकता में एकता’ के बारे में पढ़ा था वह शब्द अब एक सपना लग रहा है। श्रीनगर से कन्याकुमारी तक और अरुणाचल से कच्छ तक, यह भारत अब एक भारत नहीं रह गया है। इस देश में अब खोजने से हिन्दू मिल जायेंगे, मुस्लिम और इसाई भी मिल जायेंगे; बिहारी, पंजाबी, मराठी, गुजराती और तमिल भी मिल जायेंगे; खोजो तो हिन्दीभाषी, बंगला, कन्नड़ और तेलुगुभाषी भी मिल जायेंगे पर चाहे कितना भी कोशिश कर लो, शायद ही कोई भारतीय तुम्हे मिले। धर्म, जाती, भाषा और क्षेत्र के नाम पर लड़ने वालो ने इस देश को अब एक नहीं रहने दिया है। जिसका नतीजा आये दिन होने वालो दंगो में निर्दोषों का खून बहाकार चुकाना पड़ता है। आसाम और गुजरात के दंगो में मरने वाले लोग हिन्दू या मुस्लिम होने से पहले इस भारत माँ के बेटे थे, मराठी और बिहारी के नाम पर झगड़ने वाले भी इसी माँ भारती के कोख से जन्म लिए है। पर खंड-खंड में विभाजित इस देश के वाशिंदे यह नहीं समझ पा रहे हैं की इनके आपसी झगड़ो से इनका ही नुकसान हो रहा है। जनता की इस कमजोरी का फायदा देश की राजनितिक पार्टिया और उसके नेता उठा रहे हैं। अपने नीच राजनितिक महत्वकांक्षाओं  की पूर्ति के लिए इस देश के नेता देश की जनता को मुर्ख बनाकर अपनी राजनीती की रोटियां सेक रहे हैं। अपना वोट बैंक बढाने के लिए ये नेता भारत माँ को और उसके बेटो को जाती, धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर बाँट कर उनपर राज करते हैं। जातिगत आरक्षण, धार्मिक दंगे, क्षेत्रवाद इनके कुछ ऐसे उदहारण हैं जिनका इस्तेमाल ये सत्ता पाने के लिए सालो  से करते आ रहे हैं। और मुझे ताज्जुब तो तब होता है जब इस देश की “पढ़ी लिखी अनपढ़ जनता” इनके झांसे में आ जाती है।
मैं अक्सर सोचता हूँ की आज हम कोरिया, सिंगापुर, ताइवान और जापान की तरह विकसित क्यों नहीं हैं क्योकि 60 साल पहले शुरुआत तो हमने भी वहीँ से की थी जहाँ से इन देशो ने। पर शायद इसका जवाब बहुत कड़वा है। इस गणतंत्र का तंत्र में इतने भ्रष्टाचारी बैठे हैं की इस देश को बचाने वाला चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता है। कानून बनाने वाले से लेकर कानून के रखवाले तक, सब इन कानूने के साथ अपनी इच्छानुसार खेलते हैं।और इन सब का नुकसान इस देश की कमजोर और बेबस जनता को भुगतना पड़ता है।
क्या यहीं है चाणक्य का अखंड भारत, क्या यहीं है गाँधी के सपनो का रामराज्य, क्या इसी शासन तंत्र के लिए पटेल ने प्रधानमंत्री का पद छोड़ा था। अगर यहीं है भारत की असलियत तो फिर इकबाल की वह लाइन गलत नहीं है।
“वतन की फिकर कर नादाँ, मुसीबत आने वाली है,
तेरी बरबादियो के मशवरे हैं आसमानों में,
न समझोगे तो मिट जाओगे, ऐ मेरे वतन के लोगो,
तुम्हारी दास्ताँ तक भी ना होगी दस्तानो में।”

आज जब इस 26 जनवरी को राजपथ पर देश के राष्ट्रपति तीनो सेनाओं की सलामी ले रहे होंगे तब यह देश इस 63 साल पुराने गणतंत्र को एक बार फिर से सँभालने की कोशिश कर रहा होगा। जब देश  के महामहिम एक विदेशी अतिथि के सामने अपने देश के वैभव-सम्पन्नता का दिखावा कर रहे होंगे तब विदर्भ का एक किसान आत्म-हत्या करने के लिए अपने गले में रस्सी डाल रहा होगा। जब हमारे देश की अक्षौहिणी सेना अपने ताकत का प्रदर्शन कर सीमा के पार बैठे अपने दुश्मनों के मन में डर पैदा करने की कोशिश कर रही होगी तब इसी माँ भारती का एक गद्दार बेटा अपने ही भाइयों के लिए आग उगल रहा होगा। जब सारा राष्ट्र ख़ुशी के माहौल में एक साथ झूम रहा होगा तब इस देश को बांटने वाले भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर एक ही माँ के बेटो के मन में नफरत घोल रहे होंगे। जब देश के गणमान्य नेता हजारो पुलिसों के सुरक्षा घेरे में होंगे तब हमारी ही कोई बहन इसी धरती पर किसी मानव-शरीर धारी राक्षस के कुत्सित इरादों का शिकार होकर अपने इज्जत की रक्षा के लिए आवाज दे रही होगी। पर इस जश्न के माहौल में देश के सत्ताधीशो को न तो उस किसान का दर्द समझ में आएगा, ना ही उस गद्दार की परवाह होगी और ना ही इस लड़की की चीख सुनाई देगी।

हजारो साल पहले एक यूनानी के इस हिंदुस्तान पर आक्रमण करने पर ‘उत्थिष्ट भारत’ का नारा लगाने वाले चणीक-पुत्र चाणक्य ने जिस अखंड भारत का सपना देखा था उस सपने को इसी देश के जयचंदों ने हमेशा मटियामेट किया। भारत के जिन सीमाओं ने विश्व-विजेता सिकंदर की अपराजेय सेना को वापस लौटने के लिए मजबूर किया वहीँ भारत की सीमाएं कई बार विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा लांघी गई। गजनी के महमूद, मंगोलियन तैमुर और ईरानी लुटेरे नादिरशाह से लेकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तक, सबने इस देश को अपनी अकांक्षाओं का शिकार बनाया। सैकड़ो सालो तक विदेशी ताकतों की पराधीनता में यह देश अन्दर ही अन्दर इतना खोखला हो गया था की इसके पास इन विदेशियों के खिलाफ आवाज उठाने तक की शक्ति नहीं बची थी। जब इस धरती के युवाओं के कंधे विदेशी दासता के सामने झुकने लगे थे तब माँ भारती ने गाँधी, भगत, आजाद, बोस और पटेल जैसे बेटो को जन्म दिया। झुके हुए सर उठ गए, बुढ़ापे की हड्डियों में जवानी का दम आ गया और देश को हमने उन विदेशियों से वापस छीन लिया। भारतीय गणराज्य दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बना और देश को अपना सविधान मिला। जब लालकिले की प्राचीर पर तिरंगा लहराया तो देशवासियों ने आजाद हिंदुस्तान का एक ऐसा ख्वाब बूना जो अपने गौरवशाली अतीत की पुनरावृत्ति कर सके। आंबेडकर और राजेंद्र प्रसाद के लिखे कानून को देश का सविंधान मान कर देश की सत्ता नेहरु के हाथो में सौप दी गयी। और तब इस देश का एक ऐसा सफ़र शुरू हुआ जिसने आज 63 साल बाद हमें इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ हमें एक ओर तो भविष्य के बड़े बड़े सपने दिखाए जा रहे हैं तो वहीँ दूसरी ओर यथार्थ का गन्दा रूप।

आज जहाँ ‘मिशन 2020’ का सपना बूना जा रहा हैं वहीँ सच्चाई के धरातल पड़ यह देश कई खंडो में विभाजित नजर आ रहा है। जहाँ देश की सेना नित नए हथियारों से लैश होकर विदेशी ताकतों का सामना करने के लिए तैयार हो रही हैं वहीँ देश के अन्दर देश की बेटिया खुद को सबसे ज्यादा असुरक्षित महसूस कर रही हैं। बचपन में इस देश के जिस ‘अनेकता में एकता’ के बारे में पढ़ा था वह शब्द अब एक सपना लग रहा है। श्रीनगर से कन्याकुमारी तक और अरुणाचल से कच्छ तक, यह भारत अब एक भारत नहीं रह गया है। इस देश में अब खोजने से हिन्दू मिल जायेंगे, मुस्लिम और इसाई भी मिल जायेंगे; बिहारी, पंजाबी, मराठी, गुजराती और तमिल भी मिल जायेंगे; खोजो तो हिन्दीभाषी, बंगला, कन्नड़ और तेलुगुभाषी भी मिल जायेंगे पर चाहे कितना भी कोशिश कर लो, शायद ही कोई भारतीय तुम्हे मिले। धर्म, जाती, भाषा और क्षेत्र के नाम पर लड़ने वालो ने इस देश को अब एक नहीं रहने दिया है। जिसका नतीजा आये दिन होने वालो दंगो में निर्दोषों का खून बहाकार चुकाना पड़ता है। आसाम और गुजरात के दंगो में मरने वाले लोग हिन्दू या मुस्लिम होने से पहले इस भारत माँ के बेटे थे, मराठी और बिहारी के नाम पर झगड़ने वाले भी इसी माँ भारती के कोख से जन्म लिए है। पर खंड-खंड में विभाजित इस देश के वाशिंदे यह नहीं समझ पा रहे हैं की इनके आपसी झगड़ो से इनका ही नुकसान हो रहा है। जनता की इस कमजोरी का फायदा देश की राजनितिक पार्टिया और उसके नेता उठा रहे हैं। अपने नीच राजनितिक महत्वकांक्षाओं  की पूर्ति के लिए इस देश के नेता देश की जनता को मुर्ख बनाकर अपनी राजनीती की रोटियां सेक रहे हैं। अपना वोट बैंक बढाने के लिए ये नेता भारत माँ को और उसके बेटो को जाती, धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर बाँट कर उनपर राज करते हैं। जातिगत आरक्षण, धार्मिक दंगे, क्षेत्रवाद इनके कुछ ऐसे उदहारण हैं जिनका इस्तेमाल ये सत्ता पाने के लिए सालो  से करते आ रहे हैं। और मुझे ताज्जुब तो तब होता है जब इस देश की “पढ़ी लिखी अनपढ़ जनता” इनके झांसे में आ जाती है।

मैं अक्सर सोचता हूँ की आज हम कोरिया, सिंगापुर, ताइवान और जापान की तरह विकसित क्यों नहीं हैं क्योकि 60 साल पहले शुरुआत तो हमने भी वहीँ से की थी जहाँ से इन देशो ने। पर शायद इसका जवाब बहुत कड़वा है। इस गणतंत्र का तंत्र में इतने भ्रष्टाचारी बैठे हैं की इस देश को बचाने वाला चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता है। कानून बनाने वाले से लेकर कानून के रखवाले तक, सब इन कानूने के साथ अपनी इच्छानुसार खेलते हैं।और इन सब का नुकसान इस देश की कमजोर और बेबस जनता को भुगतना पड़ता है।

क्या यहीं है चाणक्य का अखंड भारत, क्या यहीं है गाँधी के सपनो का रामराज्य, क्या इसी शासन तंत्र के लिए पटेल ने प्रधानमंत्री का पद छोड़ा था। अगर यहीं है भारत की असलियत तो फिर इकबाल की वह लाइन गलत नहीं है।

“वतन की फिकर कर नादाँ, मुसीबत आने वाली है,

तेरी बरबादियो के मशवरे हैं आसमानों में,

न समझोगे तो मिट जाओगे, ऐ मेरे वतन के लोगो,

तुम्हारी दास्ताँ तक भी ना होगी दस्तानो में।”

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