क्विज के एक दिन पहले का तनाव …

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-अजय कुमार बिलारे

आई.आई.टी-जे.ई.ई की परीक्षा के एक दिन पहले इतना तनाव नही हुआ होगा,
जितना की क्विज -2 के चौथे पर्चे के पहले था, उस रात ऐसा लग रहा था मानो
किसी ने सन्सार की सारी मुश्किल भरी जिम्मेदारियों को एक साथ मेरे सिर मढ़
दिया हो ।उस रात तो आँखों ने भी धोखा देना शुरू कर दिया था , ऐसा लग रहा
था, मानो पिछले सात जन्मो से नीन्द की प्यासी हों और उस रात वो अपनी इस
प्यास को बुझाए बिना नहीं रह सकती हों। उस रात मैं ,एक मिनट में ही चाय
रूपी नीन्द के 10-10 प्याले पी जाता था और मिनट का काँटा भी मानो सेकंड
के काँटे की तरह ही भाग रहा था । ऐसा लग रहा था मानो 1 घन्टे पूर्व ही
मैंने तीसरा पर्चा लिखा हो । मैं मन में यही सोच रहा था कि यदि समय इतना
ही तेज चलता होता तो ,अब तक मेरी इंजीयरिंग की डिग्री कब की पूरी हो जाती !
इसी सोच विचार के बीच-बीच मे मेरी नज़रें पुस्तक पर भी पङ जाती थी ,
एक-एक शब्द को पढने मे मिनटों लग जाते थे , कभी-कभी तो पुस्तक को पढने पर
ऐसा लगता था की मैं इंजीनियरिंग की नहीं बल्कि चायनीज भाषा की पुस्तक देख
रहा था !

इन सब सोच-विचार और सन्शय के बीच में एक दोस्त आकर बोलता है – “भाई सुबह
4 बजे पक्का उठा देना नहीं तो मैं फ़ेल हो जाउन्गा !, सब तेरे हाथ मे है अब !”,
तब मुझे गर्व महसूस होता कि मेरे रात भर जगने से कितने बच्चों का
भविष्य खराब होने से बचता है ।सोच-विचार और पढने का ये सिलसिला जारी रहता
है ,साथ ही नजरे ये जाँचने  से पीछे नही रहतीं कि कितने पन्ने और बचे हैं |
पाठ्यक्रम तो ऐसा लग रहा था ,मानो किसी ने हमे एक रात में ही भारत का
पूरा संविधान पढ़ने को दे दिया हो । इन सब के बीच में मै तो ये ही भूल
गया था कि परीक्षा के तुरन्त बाद असाइनमेन्ट जमा करना अनिवार्य है,यदि
नहीं जमा किया तो विषय को अगले वर्ष फिर पढना पङेगा |

मेरा दिमाग जबाब देने लगा था कि अब क्या किया जाये, रात को 2 बजे किसको
जगा कर असाइनमेन्ट लिया जाये । मैने अपना दूरसंचार यन्त्र उठाया और लोगों
को जगाना शुरु किया , भगवान की कृपा से पहला बन्दा जिससे मैंने सम्पर्क
किया वो जगा था । मैं बहुत खुश हो गया, लगा की अब तो जुगाङ हो गया ,
लेकिन मुझे मालूम नही था कि उस असाइनमेन्ट की नक़ल नहीं की जा सकती है
बल्कि उसमे कोड लिखना पङेगा तथा कुल पृष्ठों की सन्ख्या 50 है | अब मेरा
दिमाग इतना ज्यादा तनाव से भर गया कि मेरे दिमाग का भी दिमाग मुझ पर खराब
हो गया । अब ऐसी स्थिति में मन भला क्यों पीछे रहे, वो भी मुझे उलाहना
देने लगा । कैसे भी कर के मैने अपने मन को शान्त कराया और लेकिन वो फिर
भी तरह-तरह की बाते सोचने लगा | उस समय मुझे ऐसा लग रहा था कि मैने
इंजीनियरिंग महाविद्यालय मे प्रवेश लिया ही क्यो ?; यहाँ आने के पहले
मैने कितने सपने देखे थे, सोचा था की ये करूँगा वो करूँगा  | लगता था कि
मैं तो सिर्फ़ इंजीनियर बनने के लिये ही इस धरती पर भेजा गया हूँ ! लेकिन
उस दिन मुझे ऐसा लग रहा था कि मानो इंजीयरिंग की पढ़ाई करना मेरी जिन्दगी
की सबसे बङी भूल बन गयी थी | तीन साल हो गये ,लेकिन आज भी परीक्षा के एक
दिन पहले तक भी, मैं किसी भी विषय का निर्धारित पाठ्यक्रम पूरा नही कर
पाता हूँ , हमेशा परीक्षा के एक रात पहले ही पढने बैठता हूँ । (खैर ये तो
हर परीक्षा के पहले की कहानी है ,जो कि बहुत ही साधारण सी बात है !)|

सोच के इस तारतम्य में मेरे मन से अनेक कुण्ठित भावनाएँ भी निकलती
जा रहीं थीं | काश प्राध्यापक की तबियत खराब हो जाए और परीक्षा स्थगित हो
जाए  (लेकिन आई.आई.टी. महाविद्यालय में ऐसा कुछ भी होना असंभव सा था )|
उस दिन तो मैं अपने भविष्य के बारे में भी कुछ ज्यादा ही सोचने
लगा था | बस ये इंजीयरिंग की पढ़ाई कैसे भी खत्म हो जाए और मेरी नौकरी ,
किसी अच्छी वित्त-कम्पनी में मोटी तनख्वाह पर लग जाए | फिर तो जिंदगी में
शांति ही शांति (मैं अपने मन को दिलासा दे रहा था)|
अब मै थोड़ा तनावमुक्त महसूस कर रहा था, मैंने पुस्तक के पन्नों को फिर
से देखना शुरू किया , लेकिन फिर से कोशिश नाकाम हो गयी , मुझे कुछ समझ ही
नहीं आ रहा था | अब मेरा मन मुझे छोड़ सर न्यूटन,आइंस्टाइन,डाल्टन तक को
उलाहना देने लगा था और ऐसे भाव आने लगे कि यदि इन सब वैज्ञानिकों ने
सिधान्तों का प्रतिपादन नहीं किया होता तो ये विषय ही कोर्स में नहीं होता !

विचारों के इस अनियमित प्रवाह का अंत हो ही रहा था कि अचानक सुबह
हो गयी और मुझे याद आया कि अभी तक ना तो मेरा पाठ्यक्रम पूरा हुआ है और
ना ही मैंने असाइनमेन्ट किया है |मैंने बड़ी मुश्किल से सिर्फ 2 पन्ने ही
लिख कर जमा करने की सोची (क्योंकि कुछ तो लिखना ही पडेगा ,नहीं लिखा तो
यह विषय अगले वर्ष फिर करना पड़ेगा)|
(मैंने आह भरी ! चलो एक काम तो हुआ. . . )|
अब तो परीक्षा को शुरू होने में थोड़ा ही समय शेष था | मैं परीक्षा
देने गया | वहाँ पर पर्चा देखा तो मेरे होश उड़ गए ,कोई प्रश्न बनने की
बात तो दूर मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था ,लगा की प्राध्यापक ने वही
चायनीज़ भाषा का पर्चा थमा दिया हो | मुझसे कुछ बन नहीं पा रहा था, तो
मैं इधर- उधर दूसरों को देखने लगा सभी छात्र एवं छात्राएँ गंभीरता से
परीक्षा लिख रहे थे | कुछ ने तो बड़ी जल्दी ही  लिख कर अपनी उत्तर
पुस्तिकाएँ जमा कर दीं| परीक्षा समाप्त होते ही सभी लोग चर्चा करने लगे |
मैं चुपचाप जा ही रहा था कि मुझे कुछ वार्तालाप सुनाई पड़े

–“भाई ! आज का पर्चा तो एकदम सरल था ,मेरे तो पूरे नम्बर आ रहे हैं |”
-“इस पर्चे के लिए तो मुझे ज्यादा पढ़ने की जरुरत नहीं पड़ती , जो कक्षा
में पढ़ाया था ,वही पूछा था |”
-“इस में तो हर किसी के 80 प्रतिशत से ऊपर अंक आयेंगे और पता नहीं कितनो
को पूर्णांक मिलेंगे !”
-“अरे यार ! आज भी खराब गया ,मैं फिर से इस विषय अगले साल नहीं पढ़ना चाहता हूँ |”

इतना सब सुन कर मुझे अपने ऊपर बहुत गुस्सा आ रहा था , बार– बार
मैं यही सोच रहा था कि काश कक्षा में ध्यान दिया होता तो कितना अच्छा
होता , मुझे भी अच्छे अंक प्राप्त होते और मुझे इतना मानसिक तनाव नहीं
सहना पड़ता |
(ऐसे ख्याल तो लगभग हर परीक्षा के बाद मेरे जेहन में आते हैं…..! )
वैसे तो हर एक परीक्षा के पहले मेरे मस्तिष्क में जो सब्र का बाँध
है , उसमे दरार पड़ जाती थी, लेकिन आज शायद सब्र का बाँध पूरी तरह टूट
चूका था | उसे रोक पाना मेरे लिए नामुमकिन बन गया था | (क्योंकि जब भरा
हुआ बाँध टूटता है तो बाढ़ को कोई रोक नहीं सकता है, बस पानी का असीमित
प्रवाह होता रहता है और तब तक उसे रोक पाना आसान नहीं होता है जब तक वो
स्वयं से ना थमने लगे !)
मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था ,अब लगता है कि मुझे भी नशीले पदार्थों
का सेवन करना शुरू कर देना चाहिए क्योंकि इनसे मेरा तनाव थोड़ा कम तो हो
ही जाएगा (तनाव में आ कर तो बड़ी-बड़ी हस्तियाँ भी ऐसा करना शुरू कर देती
हैं , तो मैं क्यों नहीं !)| शायद यही आखिरी सही रास्ता हो . . .
मैं मन में सोचने लगा कि –

आई.आई.टी. महाविद्यालय आने के पहले मैं हर काम को समय पर और
सही तरीके से करता था, रिश्तों व जिन्दगी के हर एक पहलू को अच्छी तरह से
समझता था और एक अच्छा इंसान होने पर गर्व महसूस करता था | लेकिन ये 
आज-कल मुझे क्या हो गया है , मैं किसी भी काम को गंभीरता से नहीं करता और ऐसे
में अपने आप को सम्मान भरी नजरो से भी देख ही नहीं पाता | आखिर क्यों ?
मेरे मन में ऐसे अनगिनत सवालों की  श्रृंखला उत्पन्न होती रहती है –
1)      आखिर मुझे जिंदगी से क्या चाहिए ?
2)      मैं इतनी आलस्य क्यों करता हूँ ?
3)      मैं अपने पूर्व तय किये गए लक्ष्यों से क्यों भटक गया हूँ ?
4)      मैं अपने कार्य के प्रति क्यों समर्पित नहीं हूँ ?
5)      समय बदल रहा है या मैं ?
6)      माता-पिता ने मुझसे क्या उम्मीदें की थीं, और मैं उनकी उम्मीदों पर
पानी क्यों फेर रहा हूँ ?
ये सब सवाल मेरे अकेले की जिन्दगी से ही नहीं जुड़े हैं , क्योंकि
हममें से बहुत से विद्यार्थियों के साथ ऐसी स्थितियाँ बार–बार आती हैं
लेकिन हर कोई आसानी से इन परिस्थितियों से उबर नहीं पाता , या तो वे
नशीली सामग्रियों का सेवन शुरू कर देतें है या फिर अपनी जीवन लीला समाप्त
कर देतें है | केवल कुछ ही ऐसी विषम परिस्थितियों से जूझ कर आगे बढ़ पाते
हैं | इन सभी सवाल का जवाब मैं खोजने की कोशिश कर रहा हूँ . . .?

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